भूत

“उल्लू बनाने के लिए, कोई नहीं मिला तुमको। जाओ किसी और से बोलो, तुम जैसे भिखारिओं से तो मैं बात भी नहीं करता। नया-नया रैकेट शुरू किया है क्या? सुनो कॉन्सेप्ट अच्छा है, पर बंदा तुमने गलत ढूंढ लिया। जाओ किसी और को पकड़ो।”
“अरे सच बोल रहा हूँ भाई।”
“और कुछ, निकल लो इससे पहले मेरा दिमाग भन्ना उठे”
“भाई मान जाओ प्लीज”
“देखो, मेरा मूड बहुत ख़राब है, मुझे कुछ भी करने में गुरेज़ नहीं। क्यों खुद को तंदूरी बनाना चाहते हो”
“मेरा तंदूरी आलरेडी बन चुका है, बताओ किसी के खाने के काम भी नहीं आया, इससे अच्छा तो कुक्कड़ होता मैं।”
बात हंसने की थी, पर उसकी आँखों में आंसू दस्तक़ दे रहे थे। साइड में एक खम्भे का सहारा लेके खड़ा हो गया। आंसू आंखों से चले तो थे पर अभी तक बाहर निकलने का रस्ता नहीं ढूंढ पाये थे। उसकी छोटी आँखें समंदर बन गयी थीं। अमर को दर्द दिल तक महसूस हुआ उसका।
“अच्छा ठीक है, बताओ क्या चाहते हो। देखो मैं टिकट खरीद दूंगा और खाना भी इससे ज्यादा उम्मीद मत करना, कहाँ जाना है।”
“नहीं चाहिये टिकट और खाना” आँखों में भरा समंदर उफान पे था, और पलकों से बने बाँध को अपने हिलोरों से पार करता निकल पड़ा था, अंजान मंज़िल की तलाश में।
“रोना बंद कर दो और बताओ क्या चाहिए”
“मदद”
“कब से बोल रहे हो भूत हो और मैं भिखारी समझ रहा, अब भूत को भी मदद की दरकार हो गयी। देखो भाई टाइम-मशीन तो बानी नहीं अभी के पीछे जाके तुम्हारी जान बचा दूँ। फिर भी रोना मत बताओ क्या करूँ।”
“मेरे घर तक बस एक संदेश पहुंचा दो, की मैं बेवकूफ था। पर बहुत प्यार करता था उन्हें।”
“खुद कर लो ये मैं क्यों”
“क्योंकि मैं उनको दिखता नहीं”
“अच्छा………, और मैं दिखाई भी देता सुनाई भी, और तुम चाहते हो की मैं यकीन भी कर लूँ”
“हाँ”
“चलो मान लिया तुम भूत हो, पर मरने के बाद तो स्वर्ग या नर्क होता, तम कहाँ हो। स्वर्ग में या नर्क में।”
“कहीं नहीं, बस हवा जैसा भटक रहा हूँ। ना जानता हूँ कहाँ जा रहा ना मंज़िल मालूम है।”
“ये तो मालूम होगा भूत बने कैसे?”
“एक सफर की कहानी है। गर्म खून और जोश कब किसी की सुनता है। घर वालों ने समझाया था, डराया था। पर समझ मरने के बाद आयी के धर्म हमारे लिए बना है, हम धर्म के लिए नहीं। एक काग के समूह जैसा बस सब चिल्लाते रहते हैं, मैं भी चिल्लाया जोर जोर से। निकल पड़ा जो भी मिला लेके दूसरे धर्म का गला दबाने या कहूँ, दूसरे धर्म के लोगों का गला दबाने। मेरे जैसे ही लोगों को मिटाने। दूसरे के लिये मौत ढूंढने निकला था, पर जब मेरे साथी मौत के तांडव में एक बच्चे को भी मिटाने चल दिये तब पता चला की वो धर्म नहीं इंसानियत मिटाने चले थे और मेरे साथियों के हाथों ही मेरा वज़ूद मिट गया। खून से खून का सौदा नहीं होता, ना किसी के घर में दिया जलता है। तो उस खुदा के या उस ईश्वर के घर में दिया कैसे जलता। और शायद इसीलिए मेरे दिल में जलता दिया भी गया।”
हम दोनों की आँखें बरस रहीं थीं, मैं चल पड़ा उसके पीछे उसके घर, उसकी कहीं सारी बातें बयां करने। सारे घर जलते नज़र आ रहे थे और सारा शहर शमशान, वो शहर की सड़कों के बीच निकलता, गलियों गलियों होता मेरे ही घर आ पहुंचा था। मैं उसके साथ ही घर में दबे पाव चल रहा था, मेरे कमरे में आके मुझे बिस्तर पे पड़े देखा और फिर मेरी तरफ नज़रें घुमायीं। और ग़ायब हो गया। मैं अवाक् था”
नींद टूट चुकी थी। और शायद धर्म का भ्रम भी। वो भूत था या मसीहा। जो एक कहानी लिख गया था फिर से हम सबके भूत होने की मेरे जेहन में।
Rohit
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Zubair
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