मैं दहशतगर्द


इलाहाबाद का एक छोटे मोहल्ले की एक छोटी सी कॉलोनी, माहौल थोड़ा गर्म था। गर्मी भी ग़दर पड़ रही थी और लोगों के दिल भी उतने ही गर्म। आज एक पीपल के पेड़ का बँटवारा होना था। कुछ लोगों की पुरानी यादों का बँटवारा और कुछ के तल्ख़ मिज़ाजों का बँटवारा। जहाँ कभी उर्स पे झंडे भी लगते थे और जहाँ शनिवार को कुछ दिये भी जलते थे सरसों का तेल पिये। आज सरसों का तेल पिये डंडों के साथ लोग खड़े थे।
"ये पेड़ मेरे बड़े दादू-जान ने लगाया था, हमारा हक़ है इसपे कितने सालों से उर्स इसके ही छाओं में सजता रहा है ", कयूम की दहाड़ती आवाज़ पत्तों तक को हिला गयी थी।
"अरे तुम्हारा हक़ कैसे सालों से दीपक जलाते हैं हम, और क्या सबूत है की उनका लगाया पेड़ है ये", प्रकाश की गर्म आवाज़, गर्मी और बढ़ा गयी।
दोनो ही अपने दल के नेता थे, और कोने में खड़ा बुज़ुर्गों का एक टुकड़ा दनादन बीड़ी-पे-बीड़ी फूँके जा रहे था। एक बुज़ुर्ग पेड़ का बँटवारा था और सारे बुज़ुर्गों को किनारा दिखा दिया गया था। रहमान चाचा की आत्मा उबाल मार रही थी और आँखें पथरा रहीं थी लोगों के अंदर के उमड़ते तूफान को देखकर। कई दंगों के दर्द आजतक जिन्दा थे और ऐसा ही हाल कुछ रामस्वरूप चाचा का भी था।
"अरे कयूम तुम अल्लाह की बनायी कायनात के बँटवारे पे तुले हो, अरे हमने मिलजुल कर ज़िन्दगी बितायी है यहाँ। अरे भाई पेड़ सबका होता है किसी एक का नहीं। इस पेड़ की छाओं में कितना वक़्त गुज़ारा है", रहमान चाचा ने रामस्वरूप चाचा की ओर देखते हुए बोला, उन्होंने भी सर हिलाते हामी भरी। रेघती आवाज़ दर्द बयां कर रही थी। कितना टाइम गुज़ारा था दोनों ने, कहानियाँ सुनना, इसी पेड़ के नीचे कभी-कभी तो चारपाई लगा के सोये भी थे।
"चुप रहिये अब्बू, आप की वज़ह से ही आजतक चुप थे हम लोग अब नहीं चुप रहेंगे। पहले दिए जलाते थे फिर धागा बांधा अब पूरे पेड़ पर अपने भगवान की तस्वीर लगा दी, अरे अब हम उर्स का झंडा कैसे लगाएंगे। ऐसे ही हैं ये लोग पहले हाँथ पकड़ते हैं और फिर सर पे चढ़ जाते हैं। हमने अपने हिस्से का प्यार दिया थो इन्होने हमारे हिस्से की ज़मीन भी छीन ली। अब नहीं चुप रहेंगे" कयूम फिर चिल्लाया, और उसके पीछे खड़े लोगों की आँखें की सुर्खियत बढ़ गयी।
"किस प्यार की बात करते हो मियाँ, प्यार से तो हम जान भी दे देते हैं, पाकिस्तान दे तो दिया जाओ। और रही बात पेड़ की तो हमारे धर्म में पीपल के नीचे दिया जलना शुभ होता है, और शुभ कर्म में क्या हर्ज़। क्या कहते हो भाइयों", प्रकाश बोला, पीछे से कुछ जय श्री राम के नारे भी आये।
लग रहा था ये बयानबाज़ी कहीं बड़ी लड़ाई ना बन जाये तभी शैलेन्द्र बोल पड़ा "भाई लड़ाई में किसी को कुछ नहीं मिलेगा, एक काम करते हैं बाँट लेते हैं इसे आधा-आधा, हिन्दू मोहल्ले की तरफ का आधा हिस्सा उनका, और मुस्लिम मोहल्ले की तरफ का आधा हिस्सा उनका", शैलेन्द्र पढ़ा लिखा था Ph.D. कर रहा था। पहले-पहल तो कोई तैयार नहीं हुआ फिर जैसे-तैसे समझौता हो गया, पर प्रकाश अनमना सा दिख रहा था।
देश में एक और बंटवारा हुआ जिसका पता देश को भी नहीं चला, और इस बार भी धर्म के नाम पर। सारी कागज़ की तस्वीरें उठा कर एक ओर कर दी गयीं और दूसरी तरफ झंडा भी लग गया। तनाव तो अब भी तैर रहा था दिलों में पर उपर का दिखावा भी काफी बढ़ गया था। रंगीन बैनर और पोस्टर से लदा पेड़ अब पेड़ कम और धर्म का मार्केटिंग बोर्ड बन गया था। पेड़ के तने पे सफ़ेद पेंट से लाइन खींच शिद्दत से बांटा था लोगों ने।
"चलो लगता है अब शांति रहेगी इस मोहल्ले में", रामस्वरूप चाचा चाय पीते-पीते बोले अपनी अर्धांगिनी से।
"आपको तो बस शांति चाहिए, अच्छा मौका था पेड़ काट जाता तो थोड़ा आगे बढ़ा के अपना लॉन बना लेते, मेरे दोस्तों के भी घर हैं सुन्दर और हमारे घर के सामने ये पहाड़ जैसा पेड़, कितनी मुश्किल से लोग खड़े हुए थे। अब झेलो जिंदगी भर", प्रकाश के चेहरे पर झुंझलाहट और गुस्सा अपना घर बना चुके थे, रामस्वरूप के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं। और उसके 8 साल के बच्चे राजा पे डर का बोलबाला प्रकाश की आवाज़ से पसर गया था। सहमी सी शांती पसरी हुई थी आँगन में।
उसी शाम राजा पेड़ के पास कुछ कर रहा था, वो साइड मुसलमानों की थी कयूम ने रोका बोला "राजा क्या कर रहा है तू"
"पापा पेड़ से गुस्सा हैं, काट रहा हूँ। इस चाकू से", राजा ने हाँथ में ली छोटी सी सब्जी काटने वाली चाकू की तरफ इशारा किया।
कयूम ने भगा दिया उसे, रात में मीटिंग बुलाई जिसमें गली के चूहेड भी शामिल थे फैसला हुआ की वो हमारे साइड का पेड़ काटना चाहते हैं उससे पहले हम उनके साइड का पेड़ काट देंगे और रात ही रात अमल भी हो गया। सुबह तक माहौल फिर से गर्म था। लोग लाठियाँ डंडे लेकर फिर से तैयार थे। आसमान गुस्ताखियों से तंग था, ज़ोर की आंधी और सालों से खड़ा पीपल धराशायी हो गया।
रहमान चाचा की आँखों से आँसू छलक पड़े, "चलो एक और दहशतगर्द उठ गया दुनिया से"। मैं भी खुश था चलो मेरे मरने से ही इस झगडे का अंत होना था, सो हो गया। बस कई सालों से मेरे छाओं में ज़िन्दगी बसर करते रहमान चाचा की बातें मुझ मुर्दे को छलनी करती निकल गयीं पर शायद ठीक ही कह रहे थे वो।
"मैं ही वो दहशतगर्द था, मैं दहशतगर्द"
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