लैंप-पोस्ट

A Hindi short story of a lamp-post starts from a small city and ends with a question.

ये मेरी कहानी है, एक लैंपपोस्ट की कहानी। आज़ादी से पहले की बात है, यूपी का एक छोटा सा शहर जहाँ मेरा जन्म हुआ मीरजापुर नाम था। मीरजापुर का एक छोटा गार्डेन जिसमें वहाँ के लोगों का जाना मना था। उसके मेनगेट पे लगवाया था अंग्रेज़ों ने मुझे। मैं उस गार्डेन का रात की शिफ़्ट का चौकीदार और रामचरण मेरा बॉस। दिन भर चहलपहल और शाम में अंग्रेज़ अपनी मेमों के साथ घूमने आते थे। मेरा दिल लगा रहता था उन खूबसूरत चेहरों में। वैसे तो रामचरण अच्छा आदमी था पर जब हर शाम भुनभुनाता सीढ़ी लगा के चढ़ता था और तेल डाल के कान को कसता था तो भौहें चढ़ जाती थीं मेरी, गुस्से में मैं लालपीली रौशनी कर देता था। पर गुस्सा कान घुमाने से ज्यादा रामचरण का मेमों को भलाबुरा कहने का था। इतनी ख़ूबसूरत थीं वो और ये काला भुसन्ड। 

पर जैसा भी था रामचरण ही अकेला दोस्त था मेरा। अपनी कहानी सुनाता था और रोज़ अख़बार के पन्नों की कुछ कहानियाँ मेरी रौशनी में बैठ के। और जैसे ही कोई साहबबाबू आ जाते भाग के सर झुका के गेट पर खड़ा हो जाता। सर्द रात थी और रामचरण को बुख़ार था। कपास के बोरों से सर ढक के रामचरण मेरे पैरों के पास बैठा था। अंग्रेज़  साहब की गाडी आयी और रामचरण बैठा ही रहा। उस रात के बाद मुझे भी अंग्रेज़ों से नफ़रत हो गयी। रामचरण को मुझसे बाँध दिया था उनके कारिंदों ने और बहुत मारा। उनके चाबुक की चोट रामचरण के शरीर पे और मेरे दिल पे लगी थी। कितना असहाय था मैं, रामचरण चीख रहा था और मैं उसकी कोई मदद नहीं कर सकता था। और आसपास लोग दुबक के खड़े तमाशा देख रहे थे। कैसे लोग हो, तुम भी लैंप पोस्ट बन जाओ मेरी तरह।जब रामचरण निढाल हो गया तो वो चले गये। उस रात के बाद रोशनी देने का मन नहीं हुआ पर डर था कि रौशनी कम हुई या नहीं हुई तो गुस्सा रामचरण पे उतरेगा।

वो चेहरे तो अब भी आते थे हर शाम पर अब उनकी सफेदी नहीं दिलों की कालिख दिखती थी मुझे। बस चले तो मैं ही मार डालूं इन लोगों को। ख़ैर देश में आज़ादी की बयार बह रही थी। रामचरण मुझे रोज़ एक कहानी सुनाता बताता की आज क्या हो रहा। मैं भी खुश था भगाओ इन अंग्रेज़ों को। दिन नज़दीक आ रहे थे आज़ादी के और बुरी ख़बरें भी आ रहीं थी। रामचरण की कहानियां अब कड़वी लगने लगी थीं। लोग एक दूसरे को मार रहे थे, ये वही लोग थे न जो साथ होके आज़ादी पाना चाहते थे। शायद गुलामी के दर्द ने जोड़ रखा था। आज़ादी की ख़ुशी तो तोड़ रही थी इन्हें। बसों गाड़ियों में भरभर के लोग पलायन कर रहे थे।

आज़ादी का दिन भी आया किसी बच्चे ने एक झंडा मुझपे भी बाँध दिया, लगा मैं भी अदना सिपाही हूँ इस लड़ाई का। रामचरण के दोस्त फ़ैज़ल और उसकी घरवाली की शहादत ने उसे तोड़ दिया था, पर ख़ुशी थी आज़ाद हवा में सांस लेने की। रामचरण और मैं खुश तो थे, पर बँटवारे का दर्द रगों में दौड़ने लगा था। उस बँटवारे ने ऐसी खाई बनायीं धर्मों में जो आजतक पाट नहीं पाया कोई। ख़ैर देश आगे बढ़ रहा था और रामचरण धीरेधीरे बूढ़ा हो रहा था। देश में बिज़ली आ गयी थी। मेरी रगों में भी छेद करके कुछ तारें घुसा दी गयीं और चमकदार बल्ब लगा दिया। अब रामचरण ने कान उमेठना बंद कर दिया था, बस एक स्विच को दबाता था और मेरी शरीर में झुरझुरी दौड़ जाती थी लगता था रोज़ नसों में टिटनेस का टिका लगाया जाता हो, दर्द ज्यादा था और लगा बल्ब चमकने लगता था।

आसपास कुछ और जवान लैम्पपोस्ट लग गए थे। काफी खुश हुआ था मैं की किसी से अब मैं भी बात कर पाउँगा वरना रामचरण तो सिर्फ सुनाता था। मैं उन्हें आपबीती सुनाता था और हँसते थे मुझपे। मुझे सेकुलरिज्म और ह्यूमैनिटी समझाते थे। सही थे वो, पर उस गुलामी और बंटवारे का दर्द मैंने देखा था वो तो पैदा ही आज़ाद हवा में हुए थे। खैर धीरेधीरे मुझे खूसट बोल किनारे कर दिया उन्होंने, और मैं भी वापस रामचरण की बातों में मशगूल हो गया। 

रामचरण जैसा भी था मेरा यार था। भला कोई एक पोस्टर तो चिपका के देखे, रगड़रगड़ के नहलाता था मुझे, और हर शाम अख़बारों के नए कतरे मेरे कान में डाल देता था। एक दूसरे के पूरक बन गए थे हम।

फिर एक रोज़ रामचरण नहीं आया मैं अँधेरे में डूबा था। दोतीन दिन और बीते मैं ग़मगीन हो रहा था, अचानक फिर से झुरझुरी दौड़ी मेरे शरीर में और मेरी नज़रें रामचरण को ढूंढने लगीं। पूछ तो पाउँगा नहीं की कहाँ थे पर उसकी प्यारी बातों से और उन कतरों से खुश हो जाऊंगा। पर रामचरण आज भी नहीं आया था। मेरी आँखें ताकती रहीं पर रामचरण नहीं आया। किसी और को रामचरण की जगह मिल गयी थी रमेश नाम था उसका जिसके लिए मैं एक बूढ़ा लैंपपोस्ट था जो अब टेढ़ा होक दीवार का टेक लिए खड़ा था। रोज़ देखता और बोलता था की साहब से बोल के हटवा दूंगा इसे, बड़ा दुःख होता मुझे लगता था फांसी होने वाली है बस दिन मुकर्रर नहीं।

उस दिन मैं बिलकुल टूट गया जब दो शोहदे मुझे ही टेक लगा के उस लड़की को छेड़ रहे थे, मन किया ये तारें निकाल के इनके शरीर में ही फिट कर दूँ और बल्ब जैसा जलने दूँ। पर लैम्पपोस्ट होने की तकलीफ पता चली थी मुझे, कुछ कर नहीं पाया। जब किसी ने रोका उन्हें, तो शहर में दंगा हो गया। हिन्दू और मुस्लिम फिर लड़ गये, बंटवारा दिलों में ज़हर बुझे तीर पैवस्त कर के गया था। फिर से कई घर जल रहे थे, और मैं सोच रहा था कि क्या इसी आज़ादी के लिए खुश थे रामचरण और मैं। उस दिन लगा रमेश ने फाँसी का दिन अभी तक मुकर्रर क्यों नहीं कराया। कुछ और दिन ये जलालत झेलनी पड़ेगी मुझे। लोग शायद गुलामी की वजह से एक थे आज़ादी ने तो इन्हें बाँट दिया था।

फिर एक दिन नगर निगम वाले आये, मुझे वेंटिलेटर से उठाया, कंधे पे लेके चल दिए। मैं तो आज़ाद हो गया था पर वो कौन सी आज़ादी थी जो लोगों को चाहिए थी। मैं तो आज़ाद हो गया था पर वो कौन सी आज़ादी थी जो लोगों को चाहिए थी। 

मैं तो आज़ाद हो गया था पर वो कौन सी आज़ादी थी जो लोगों को चाहिए थी। 

12 Comments

  • Anjali chauhan Reply

    Written very beautifully

    • Tejas Reply

      Thank you Anjali

  • Chandni Reply

    Kya baat,fabulous

  • aman Srivastava Reply

    Bht achi hai 👌👌
    Its really heart touching and beautiful story 😊👍👍

  • Manish Reply

    Good idea expressed beautifully!👍

  • Nimesh Reply

    अद्भुत !!!
    रौंगटे खड़े कर देने वाली कहानी। बहुत ही स्पष्ट।
    ऐसी कहानियो को हम “बीज” कह सकते है.. जिसमे सोच को cultivate करने की क्षमता है और फिर उत्पन्न होती है नई कहानियां, कविताये, नाटक, बहुत कुछ। अपने आप यह कहानी आपका attention खींच लेती है।
    Worth a read 🙂
    Commandable & Recommendable

  • Mohammad zubair Reply

    My favourite

  • Ashish Bhatia Reply

    Bahut umda 👏

  • शिव प्रकाश Reply

    बहुत सुन्दर। पाठकों के लिए यह कहानी एक विचारणीय प्रश्न के रूप में सामने खड़ी है कि हमें क्या यही सब करने की आजादी मिली है।

    • Tejas Reply

      Thank you

  • Poonam Reply

    Superrrb, beautiful writing 👍

    • Tejas Reply

      Thank you Poonam

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